प्रार्थना समाज
जब भारतीय शिक्षा पद्धति में अंग्रेजी शिक्षा और भाषा ने घूषपैठ की और ईसाई मिशनरियों के फैलते जाल को देखकर भारतीयों में अपने सामाजिक व आर्थिक विश्वासों, परम्पराओं और रीति- रीवाजों के दोषों के प्रति चेतना जाग्रत हुई। ईसाई मिशनरियों ने जब भारत के लोगों का धर्म परिवर्तन कराकर उन्हें ईसाई बनने पर विवश किया जाने लगा तो भारत के अन्य धर्म के लोगों में इसके प्रति भय व डर की भावना उत्पन्न हुई और उन्होंने इसकी जमकर आलोचना कि और भारतीयों को धर्म परिवर्तन कराके ईसाई न बनने देने के लिए एक मंच की आवश्यकता महसूस हुई। इन्हीं भावनाओं पर अडिग रहते हुए सन् 1867 में डा. आत्मारंग पांडुरंग ने एक ईश्वर की उपासना और समाज सुधार के लिए प्रार्थना समाज एक नई संस्था की स्थापना की। महादेव गोविन्द रानाडे तथा आर. जी. भण्डारकर इसके मुख्य नेताओं में थे। इस संस्था ने सामाजिक क्षेत्र में कई प्रशंसनीय कार्य किए। स्त्री शिक्षा के प्रसार तथा दलित जन-जातियों के उत्थान पर इसने विशेष बल दिया। दलित जातियों की उन्नति के लिये 'दी डीप्रेस्ड क्लासेज मिशन' स्थापित किया और अनाथों के लालन-पालन के लिए पंढारपुर में एक अनाथालय खोला। धार्मिक शिक्षा के प्रसार पर भी बल दिया गया और इस बात के भरसक प्रयास किए गये कि कोई भी हिन्दु व भारतीय धर्म परिवर्तन कर ईसाई न बने। इसके लिये रात्रि
पाठशालाएँ खोली गयीं व 'सुबोध पत्रिका' नामक पत्र का प्रकाशन भी आरम्भ
किया गया।
प्रार्थना समाज के प्रमुख उद्देश्य
(1) प्रार्थना और सेवा द्वारा ही ईश्वर की पूजा करना ।
(2) जाति-प्रथा का विरोध ।
(3) विधवा विवाह तथा अन्तर्जातीय विवाह का प्रचार करना ।
(4) स्त्री शिक्षा को प्रोत्साहन देना ।
(5) बाल-विवाह का विरोध व बहिस्कार ।
(6) हरिजनों तथा महिलाओं की शोचनीय स्थिति में सुधार लाना ।
(7) अन्य समाज सुधार कार्य ।
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