राजस्थान की प्रमुख बोलियां, राजस्थानी भाषा एवं बोलियां
मारवाड़ी
मारवाड राज्य का भौगोलिक क्षेत्र बहुत विस्तृत रहा और इस क्षेत्र की बोली को 'मारवाडी का नाम दिन अपेक्षाकृत अधिक हुआ है। यही कारण है कि इसे कहीं-कहीं राजस्थानी का पर्याय भी माना जाता गया। यही कारण है कि राजस्थानी बोलियों में मारवाड़ी बहुत महत्त्वपूर्ण है और साहित्य सजननी धीन मारवाड़ राज्य राजस्थान की पश्चिमी सीमा से जुड़ा रहा है इसलिए मारयाती कायन राजस्थान से जोड़ा गया। आज इस बोली के क्षेत्र में जोधपुर, बीकानेर, नागौर, बाड़मेर, जैसलमेर, पाली तथा लाया का कुछ क्षेत्र इससे संबद्ध रहा है। थळी और गोड़वाडी बोलियां इसकी उपबोलियां है।
मेवाडी
राजस्थान के मेवाड़ राज्य का क्षेत्र मेवाड़ी का क्षेत्र रहा है। साहित्य परंपरा की दृष्टि से मारवाड़ी के पश्चात् मेवाड़ क्षेत्र में साहित्य लेखन हुआ है। आधुनिक राजस्थान में उदयपुर, चित्तौड़गढ़, राजसंमद तथा भीलवाड़ा का क्षेत्र मेवाही थाली । क्षेत्र कहा जा सकता है। मेवाड़ के पर्वतीय क्षेत्रों में बोली जाने वाली मेवाड़ी को 'पर्वती भवाही मैदानों में बोली जाने वाली मेवाड़ी को मैदानी मेवाड़ी' कहा जाता है।
ढूंढाडी
राजस्थान के प्राचीन ढूंढाड़ प्रदेश जिसका संबंध आमेर राज्य से रहा. उस क्षेत्र की बाली का ढूंढाड़ी बोली कहा गया है। इस बोली की सबसे बड़ी विशेषता 'छै' शब्द का प्रयोग है। इस शब्द का प्रयोग गुजराती के प्रभाव को इंगित करता है। आधुनिक राजस्थान में जयपुर, दौसा, बगरू. दूदू तक का क्षेत्र ढूंढाड़ी का क्षेत्र कहा जा सकता है। तोरावाटी, राजावाटी, नागरचाल आदि इसकी उपबोलियां हैं।
हाड़ौती
हाड़ा राजपूतों के राज्य से संबंधित क्षेत्र को हाड़ौती बोली का क्षेत्र माना गया है। इस बोली में भी ढूंढाडी की तरह 'छै' शब्द का प्रयोग किया जाता हैं। आज कोटा, बूंदी, झालावाड़, बारां का क्षेत्र हाड़ौती बोली का क्षेत्र कहा जा सकता है।
मेवाती
मेव' जाति का आधिक्य होने से अलवर, भरतपुर के क्षेत्र को मेवात' क्षेत्र कहा गया है। इस क्षेत्र की बोली को 'मेवाती' कहा गया है। इसका क्षेत्र राजस्थान के आसपास हरियाणा के क्षेत्रों को भी स्पष्ट करता है। भरतपुर के आसपास के क्षेत्रों में इस बोली पर 'ब्रजभाषा' का प्रभाव भी स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।
वागड़ी
राजस्थान के 'वागड़ क्षेत्र की बोली को वागड़ी का नाम दिया गया है। यह बोली बांसवाडा, डूंगरपुर तथा आसपास के पहाड़ी क्षेत्रों में बोली जाती हैं। इस बोली पर गुजराती भाषा का प्रभाव स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है।
मालवी-
प्राचीन मालवा प्रदेश का राजस्थान प्रदेश से बहुत गहरा संबंध रहा है इसलिए मालवा प्रदेश से जुड़े राजस्थान के क्षेत्रों पर मालवी बोली का भी बहुत गहरा प्रभाव पड़ा है, जिसका अंतर करना बहुत कठिन हैं इसलिए मालवी को ही राजस्थानी की भी बोली स्वीकार किया गया है। राजस्थान के प्रतापगढ़ का क्षेत्र इस बोली का क्षेत्र है। मध्यप्रदेश का रतलाम, झाबुआ आदि का क्षेत्र इस बोली का क्षेत्र है। रांगड़ी' और 'नीमाड़ी' इस बोली की उपबोलियां हैं।
शेखावाटी
'राव शेखा के नाम से प्रसिद्धं राजस्थान का क्षेत्र शेखावाटी कहलाया है। इसी क्षेत्र की बोली को 'शेखावाटी' कहा गया है। आज चुरू, झुंझनु, हनुमानगढ़, सूरतगढ़ तथा गंगानगर के इस बोली का क्षेत्र कहा जा सकता है।
भीली और अन्य पहाड़ी बोलियाँ -
राजस्थान में आदिवासी जनजातियों का बहुत बड़ा जन समूह आज भी पहाड़ी क्षेत्रों में रहता है जो कि कबीला संस्कृति को लिए हुए हैं। इस प्रकार की जन जातियों में भील मीणा, गरासिया आदि प्रमुख हैं। इनमें भीलों का क्षेत्र व्यापक है। अतः इनकी बोलियों में भीली बोली प्रमुख रही है। इनके साथ-साथ अन्य जनजातियों की बोलियों को भी पहाड़ी बोलियों के अन्तर्गत स्वीकार किया गया है लेकिन जिन जिन क्षेत्रों में ये जातियां निवास करती है, उन क्षेत्रों की बोलियों का भी इन पर गहरा प्रभाव पड़ा है इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि भाषा का निर्माण उपभाषाओं (बोलियों) द्वारा ही होता है। इस रूप में यह भी निश्चित है कि राजस्थानी बोलियों से ही राजस्थानी भाषा का विकास हुआ है।
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